Monday, February 21, 2022

जाने संस्कृत का इतिहास

                                                                      संस्कृत का इतिहास




मित्रो आज आपके साथ संस्कृत के बारे में जो भी जानकारी मैं जुटा पाया हूँ अलग अलग माध्यम से साझा करुँगा, उम्मीद करता हूँ कि आपको भी जरूर पसंद आयेगी।  अगर हम संस्कृत शब्द के अर्थ के बारे में बात करें, तो संस्कृत शब्द का अर्थ है परिष्कृत, सजाया हुआ या परिपूर्ण रूप में निर्मित। 

उत्पत्ति की बात करें तो संस्कृत भाषा का ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं मिलता जिससे इसकी सही तिथि या उत्पति काल के बारे में जानकारी मिलती हो। शोधकर्ता और विद्वानों के अनुसार, विश्व की समस्त भाषाओं को भौगोलिक क्षेत्र के आधार पर चार भागों में विभाजित किया गया है। 

यूरेशिया (यूरोप- एशिया)

अफ्रीका भूखण्ड 

प्रशांत महासागरीय भूखण्ड तथा 

अमेरिका भूखण्ड

यूरेशिया (यूरोप- एशिया) परिवार की एक शाखा भारोपीय परिवार है। इस भारोपीय परिवार की 10 शाखा है। जिसमें से एक शाखा भारत-इरानी (आर्य) परिवार है। इसके तीन उपवर्ग हैं-भारतीय आर्यभाषा, ईरानी और दरद। भारतीय आर्यभाषा से ही संस्कृत भाषा की उत्पत्ति होती है। भारतीय आर्यभाषा का विकास दो चरणों में विभाजित किया जा सकता है। 

1. प्राचीन भारतीय आर्यभाषा 2000 ई.पू. से 500 ई.पू. तक, जिसे दो भागो में बांटा गया  है।

(क)  वैदिक संस्कृति 2000 ई.पू. से 800 ई.पू. तक

(ख) संस्कृत अथवा लौकिक संस्कृत 800 ई.पू. से 500 ई.पू. तक

2. मध्यकलीन भारतीय आर्यभाषा 500 ई.पू. से 1000 ई.पु. तक, जिसे तीन भागो में बांटा गया  है।

(क) पाली (प्रथम प्राकृत) 500 ई.पू. से 1 ई. तक

(ख) प्राकृत (द्वितीय प्राकृत) 1 ई. से 500 ई. तक

(ग) अपभ्रंश (तृतीय प्राकृत) 500 ई. से 1000 तक

आधुनिक भारतीय आर्यभाषा 1000 ई. से अब तक

हमारे देश मैं अंग्रेजों के इतिहास को काफी बढ़ावा दिया जाता रहा है। हालांकि उनके द्वारा लिखे इतिहास में बहुत सी त्रुटिआ हैं और दुर्भाग्य वश वहीं इतिहास हम आज भी पढ़ रहे हैं। अंग्रेजों ने भारत का इतिहास सिर्फ 3500 वर्ष में समेट लिया है। अंग्रेजों के अनुसार पाणिनि ने ही संस्कृत व्याकरण लिखा है। इस बात में कोई शङ्का नहीं है कि संस्कृत शब्द बनाने में पाणिनि का बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। पाणिनि संस्कृत भाषा के सबसे बड़े व्याकरण करता हुए हैं इस में भी कोई दोराये नहीं है लेकिन यह कहना उचित नहीं होगा कि पाणिनि ने ही संस्कृत व्याकरण लिखा है क्योंकि पाणिनि से पहले भी बहुत से व्याकरण ज्ञाता हुए हैं, जिन्होंने व्याकरण की रचना करी है, यह बात सवयं पाणिनि अपनी पुस्तक अष्टाध्यायी में लिखते हैं। पाणिनि से पूर्व एक प्रसिद्ध व्याकरण इंद्र का था। उसमें शब्दों का प्रातिकंठिक या प्रातिपदिक विचार किया गया था। इस के अलावा  भारद्वाज आचार्य का व्याकरण भी मिलता है। पाणिनि द्वारा बहुत सी पारिभाषिक संज्ञाएँ, इन व्याकरणों से ली गई हैं, जैसे सर्वनाम, अव्यय आदि और बहुत सी नई बनाई, जैसे टि, घु, भ आदि। लेकिन जब पाणिनि द्वारा व्याकरण के नियम बनाए गए तो उसके बाद इसे संस्कृत नाम से पुकारा गया, इस आधार पर माना जाता है कि पाणिनी के पूर्व के सहित्य को वैदिक संस्कृत और बाद के साहित्य को लौकिक संस्कृत कहते हैं। संस्कृत को पहले गीर्वाण भाषा नाम तथा भारती नाम से पुकारा या जाना जाता था। कई जगह पे गीर्वाण भारती भी बोलते थे। 

वैदिक संस्कृत

वैदिक संस्कृत अर्थात जिस काल में वेदों की रचना हुई। जैसा की हम जानते हैं कि वेद हमारे प्राचीनतम ग्रंथ हैं।वैदिक संस्कृत को ‘वैदिकी, वैदिक आदि नामों से भी जाना जाता है। वैदिक संस्कृत को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है

संहिता लेख

ब्राह्मण लेख

उपनिषद लेख

संहिता चार हैं, ऋग संहिता, यर्जु संहिता, साम संहिता, अथर्व संहिता। सभी संहिताओं में मंत्रों आदि का संकलन है।ब्राह्मण ग्रंथ वे होते थे जिनकी रचना ब्राह्मणों द्वारा की गई थी। इस भाग में कर्मकांड आदि की व्याख्या की गई है। प्रत्येक संहिता के अपने-अपने ब्राह्मण ग्रंथ मिलते हैं। ब्राह्मण ग्रंथों के परिशिष्ट या अंतिम भाग उपनिषद के नाम से जाने जाते हैं। उपनिषदों की संख्या 108 बताई गई है जिनमें से 18 उपनिषद महत्वपूर्ण हैं।

लौकिक संस्कृत 

संस्कृत के विकास में यह भाषा वैदिक संस्कृत से आगे बढ़ती है। भाषा के जिस रूप को ‘महर्षि पाणिनि‘ ने अपने व्याकरण ग्रंथ ‘अष्टाध्यायी‘ में निर्धारित किया है उसे लौकिक संस्कृत कहते हैं। वैदिक संस्कृत में कुल 52 ध्वनियां थी जो लौकिक में मात्र 48 बचती हैं। लौकिक संस्कृत में ही महत्वपूर्ण ग्रंथ रामायण और महाभारत की रचना हुई। इस प्रकार से लौकिक संस्कृत वह भाग है जो भारतीय जनमानस के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।


पाली, प्राकृत और अपभ्रंश

आगे चलकर संस्कृत भाषा के विकास की धारा पाली में बंट जाती है। महात्मा बुद्ध के शिक्षाओं का संकलन पाली भाषा में ही किया गया है। उनके सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ त्रिपिटका की रचना पाली भाषा में ही की गई है। पाली भाषा का प्रयोग बुद्ध के जनमानस से जुड़ने का प्रमुख प्रयास था। पाली के बाद में प्राकृत आती है और आगे अपभ्रंश। अपभ्रंश में ही स्वयंभू की प्रमुख रचना पउमचरिउ मिलती है। इसी अपभ्रंश से हिन्दी क्षेत्र की तमाम बोलियों का तथा इसके एक भाग शौरसेनी अपभ्रंश से खड़ी बोली हिन्दी का विकास हुआ है। इस प्रकार संस्कृत धीरे-धीरे परिवर्तित होती गई जैसे पाली और प्राकृत में साथ ही साथ इसकी एक शाखा ओर भी आगे बढ़ती रही जो आज हमे संस्कृत के रूप में मिली।

संस्कृत को व्याकरण संपन्न बनाने में पाणिनि का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। अष्टाध्यायी में उस समय के भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक, शिक्षा और राजनीतिक जीवन, दार्शनिक चिंतन, खान-पान, रहन-सहन तथा संपूर्ण संस्कृत का आधार अष्टाध्यायी में मिलता है। पाणिनि का समय क्या था, इस विषय को ले कर भी कई मत हैं। कोई उन्हें 7वीं शती ई. पू., कोई 5वीं शती या चैथी शती ई. पू. का कहते हैं। इनका जन्म तत्कालीन उत्तर पश्चिम भारत के गांधार में हुआ था। इन्होंने व्याकरण से संबंधित पुस्तके लिखी जिनमें से प्रचलित पुस्तक का नाम अष्टाध्यायी है। जिसकी रचना नीलम नदी के पास शारदा पीठ में मानी जाती है। कहा जाता है कि महर्षि पाणिनि भगवान शिव के भक्त थे। ऐसा माना जाता है की एक बार वे भगवान शिव की साधना में लीन थे, तभी भगवान नटराज (शिव) प्रकट हुए और उन्होंने अपना डमरु बजाया और हर बार उनके डमरु से शब्द निकले। महर्षि पाणिनि ने उन शब्दों को सुना, और उन शब्दों को अपने दिमाग में याद रखा और उस से संस्कृत लिपि की रचना की। सूत्रों की कुल संख्या 14 है। 

अर्थातः- नृत्य (ताण्डव) के समाप्ति पर नटराज शिव ने सनकादि ऋषियों की सिद्धि और कामना का उद्धार (पूर्ति) के लिये चैदह बार डमरू बजाया। इस प्रकार चैदह शिवसूत्रों से वर्णमाला प्रकट हुई।

यही 14 माहेश्वर सूत्र कहलाए, जिनें प्रत्याहार सूत्र और शिवसूत्र भी कहते है। पाणिनि ने इन सूत्रों के आधार पर स्वरों एवं व्यंजनों को पहचान कर उन्हें पृथक- पृथक किया। 

संस्कृत का इतिहास काफी प्राचीन है। संस्कृत विश्व की प्राचीनतम भाषा में से एक है। विश्व का सबसे प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ ॠग्वेद है, जो कम से कम ढाई हजार ईसापूर्व की रचना है। संस्कृत में लिखी गई पाण्डुलिपियों की संख्या आज भी विश्व की सबसे अधिक मानी जाती है। ऐसा कहा जाता है कि इसकी समस्त पाण्डुलिपियों को अभी भी नहीं पढ़ा जा सका है। अतः संस्कृत भाषा का साहित्य बहुत विस्तृत है। आज के विद्वानों ने अध्ययन के बाद पाया कि संस्कृत भाषा वो एक अखंड प्रवाह है जो पाँच सहस्र वर्षों से चला आ रहा है। भारत में संस्कृत आर्यभाषा का सर्वाधिक महत्वशाली, व्यापक और संपन्न स्वरूप है।

कालिदास, अभिनवगुप्त, शंकराचार्य जैसे अनेक नाम हैं, जो संस्कृत भाषा के विद्वानों में से एक है। साहित्य के अलावा आयुर्वेद के क्षेत्र में , दर्शन के क्षेत्र में तथा विज्ञान आदि के क्षेत्र में भी अनेक विद्वान भी इस भाषा में पाए जाते हैं। आधुनिक भारतीय भाषाएँ जैसे हिन्दी, पंजाबी, नेपाली आदि संस्कृत से ही उत्पन्न हुई हैं। संस्कृत भाषा हमारे भारत के लगभग समस्त भाषाओं की जननी है। हिन्दी और उर्दू इसकी प्रमुख संतानों में से एक हैं। यंहा तक कि विश्व की बहुत सी भाषाएँ किसी न किसी प्रकार से संस्कृत से प्रभावित हैं। विश्व की एक मात्र भाषा है जिसे किसी भी प्रकार के क्रम में लिखने पर अर्थ समान पाया जाता है। और ये एक ऐसी भाषा है, जिसमे कुछ शब्द के प्रयोग मात्र से ही वाक्य पूर्ण हो जाता है। विश्व की प्राचीन भाषा होने के कारण इसे ऋषियों की भाषा और देव भाषा या देववाणी भी कहते हैं। ऐसा कहा जाता है कि ब्रह्मा निर्माता थे और उन्होंने आकाशीय पिंडों के ऋषियों को संस्कृत भाषा से परिचित कराया। इसलिए, इस भाषा को देववाणी भी कहा जाता है। अगर इस आधार पर देखा जाए, तो संस्कृत विश्व की समस्त भाषाओं की जननी है। देवताओं ने तो इस सृष्टि की रचना की है, अगर संस्कृत देवताओं की भाषा है तो निश्चय ही संस्कृत विश्व की समस्त भाषाओं की जननी है।

वर्तमान में भी यदि सभी क्षेत्र के ग्रंथनिर्माण की भाषा का अध्ययन किया जाये तो वो संस्कृत ही प्राप्त होती है। इसे कुछ ही क्षेत्रों में सही से बोला जाता है और आज भी कई पंडित आपस में परस्पर वार्तालाप में संस्कृत का प्रयोग करते हैं। इसका महत्व हिन्दुओं में सबसे अधिक होने के कारण अभी भी हिंदुओं के सांस्कारिक कार्यों में इसका प्रयोग किया जाता है। यही कारण हैं, कि संस्कृत भाषा अन्य भाषा जैसे ग्रीक और लैटिन आदि प्राचीन मृत भाषाओं से बिलकुल अलग अस्तित्व रखती हैं इसीलिए इसे अमर भाषा भी कहा जाता है। विश्व की प्राचीन भाषा होने के कारण इसकी उत्पत्ति की अलग अलग व्याख्या की जाती है, लेकिन बहुत सा रिसर्च और अध्ययन करने पर, मुझे जितना समझ आया है वो यह कि पाणिनि से पूर्व वैदिक साहित्य की भाषा को भाषा कहा जाता था, लेकिन जब पाणिनि द्वारा व्याकरण के नियम बनाए गए तो उसके बाद इसे संस्कृत के नाम से जाना जाने लगा,  इसी आधार पर पाणिनि के पूर्व का साहित्य वैदिक संस्कृत कहा जाता है और बाद के साहित्य को लौकिक संस्कृत कहते हैं। वैसे देखा जाए तो इसका निर्माण नहीं खोज की गई है। संस्कृत भाषा का सबसे प्रारंभिक रूप वैदिक संस्कृत था जो लगभग 1500-200 ईसा पूर्व आया था। यह वह दौर था जब पीढ़ियों के माध्यम से मौखिक रूप से ज्ञान प्रदान किया जाता था। वेद ऋषियों की रिकॉर्डिंग हैं जिनके लिए मंत्रों का खुलासा किया गया था। वे पारलौकिक सत्य की घोषणा करते हैं, जो समय या स्थान के अनुसार नहीं बदलता है।

संस्कृत एकमात्र ऐसी भाषा है जिसका प्रयोग हिंदुओं के पवित्र कार्यों और समारोहों में किया जाता है, क्योंकि इसे हमेशा धर्म की पवित्र भाषा माना जाता है। हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि धर्मों के प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत भाषा में ही लिखे गए हैं। हिन्दुओं, बौद्धों और जैनों के नाम भी संस्कृत पर आधारित रहते हैं। भीम राव आंबेडकर का कहना था कि सभी भारतीय भाषाओं का जन्म कहीं न कहीं संस्कृत से हुआ है इसलिए ये यदि पुरे देश की राजभाषा बनाई जाये तो इससे देश में एकता बढ़ेगी। भारत में उत्तराखंड पहला राज्य है जिसकी दूसरी सरकारी भाषा संस्कृत है, उसके बाद हिमाचल प्रदेश दूसरा राज्य है, जिसकी दूसरी सरकारी भाषा संस्कृत है। 

संस्कृत काफी समय से वैज्ञानिक भाषा मानी जाने लगी है। इसकी वजह ये है कि इसका व्याकरण ध्वनि पर आधारित है. इसमें शब्द की आकृति से ज्यादा ध्वनि जरूरी है और हरेक आकृति के लिए एक ही ध्वनि है। यही इसे ज्यादा वैज्ञानिक और आसान भी बना देता है। कटी हुई जीभ वाले लोगों की जबान साफ करने के लिए संस्कृत बोलना काफी काम आता है। संस्कृत विश्व की सबसे वैज्ञानिक भाषाओं में से एक है। जिसे नासा ने भी सम्मान दिया है। नासा से संस्कृत का संबंध नया नहीं है। यह 1985 में तब शुरू हुआ, जब नासा के एक सहयोगी वैज्ञानिक रिक ब्रिग्स द्वारा आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पत्रिका में एक शोध पत्र प्रकाशित किया (खंड 6 नंबर 1)। जिन्होंने वैदिक विज्ञान- ‘संस्कृत और कृत्रिम बुद्धिमत्ता में ज्ञान प्रतिनिधित्व‘ शीर्षक से अपना शोध प्रस्तुत किया। लेखक ने तर्क दिया कि प्राकृतिक भाषाएं रोबोटिक नियंत्रण और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तकनीक के लिए कंप्यूटिंग प्रोग्राम में परिवर्तित होने का सबसे अच्छा विकल्प हैं। शोध कई मानव भाषाओं के पूल के बीच संस्कृत पर केंद्रित है, यह समझाते हुए कि यह कंप्यूटिंग तकनीकों के लिए सबसे उपयुक्त भाषाओं में से एक है। यहाँ रिक ब्रिग्स के अपने शब्दों का सारांश उसी पत्रिका से लिया गया है। 






संस्कृत और तमिल भाषा को लेकर लेखकों और पाठकों में बहुत से मतभेद रहे हैं। आर्य और द्रविड़ों पर लिखे लेखों पर कुछ पाठकों ने तमिल भाषा की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है, इस पर प्रश्न उठाऐ हैं। इसी संदर्भ में मैंने जब रिसर्च किया तो मुझे उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. डी. पी. त्रिपाठी जी के साक्षात्कार का एक लेख मिला। कुलपति प्रो. डी. पी. त्रिपाठी देश में संस्कृत के उत्कृष्ट जानकारों में से एक हैं। जब बात संस्कृत की आती है तो संस्कृत के जानकारों की बात का एक विशेष महत्व रहता है।

प्रो. डी. पी. त्रिपाठी बताते हैं कि निहित रूप से विश्व की प्राचीनतम ज्ञात भाषा संस्कृत है। भाषा के विकास को उसके व्याकरण के इतिहास के विकास से जोड़ कर देखना चाहिए। संस्कृत का व्याकरण प्राचीनतम व्याकरण में है। इस का उल्लेख वेदों में भी मिलता है। हम ऊपर बता चुके हैं कि पाणिनि से पहले भी बहुत से व्याकरण रचनाकार हुए हैं इस आधार पर भी संस्कृत प्राचीनतम भाषाओं में आती है। ऋग्वेद विश्व का सबसे प्राचीन ग्रंथ है और इस पर विद्वानों तथा इतिहासकारों में भी कोई मतभेद नहीं है। निश्चित तौर पर पहला व्याकरण  संस्कृत का ही है जो भारत भूमि पर लिखा गया। इसके तत्पश्चात अन्य व्याकरण की रचना हुई, जिसमें प्राचीनतम भाषा तमिल भी शामिल है। यदि हम पुराणों को पढ़े और समझे बहुत से महत्वपूर्ण प्रमाण मिलते हैं। आज के इतिहासकार तथा शोधकर्ता केवल 50-100 साल पहले की लिखी हुई पुस्तकों के आधार पर अपना तर्क देते हैं। इसके ठीक विपरीत हजारों वर्ष पहले लिखे ग्रंथों की कोई समझ नहीं रखते। 

दिनकर बताते हैं कि अगस्त्य ने अगस्त्यम नामक व्याकरण लिखा, जो तमिल भाषा का आदि व्याकरण माना जाता है और ये बात आज तमिल परंपरा में भी स्वीकार्य है। उत्तर और दक्षिण का भेद बहुत बाद में पैदा हुआ। इस का प्रमाण है कि संस्कृत के महानतम आचार्यों का जन्म दक्षिण में ही हुआ। आदि शंकराचार्य और ऋग्वेद के प्राप्त प्राचीनतम् भाष्य के रचनाकार सायणाचार्य जैसे विद्वान भी दक्षिण के ही थे। संस्कृत के महत्व और वैज्ञानिकता को इस बात से भी बल मिलता कि प्राचीनतम् ग्रंथों का विकास संस्कृत में ही हुआ। 

व्याकरण की बात करें, तो निहित रूप से ये स्वीकार करना ही पड़ेगा कि सबसे पहले संस्कृत का ही व्याकरण लिखा गया था। इसके बाद अन्य व्याकरणों की रचना शुरू हुई। निश्चित तौर पर तमिल व्याकरण भी बाद में ही आया। दक्षिण में वेदों का जाना और भाषा का विकास साथ साथ हुआ। यही वजह है कि तमिल का विकास सीधे-सीधे संस्कृत से जुड़ा हुआ है। वैदिक संस्कृत समस्त भाषाओं की जननी है। स्पष्टतः तमिल प्राचीनतम भाषा होने के बावजूद उसके विकास और व्याकरण के बीज संस्कृत से ही निकले हैं। ऐसे में ये कहना बिल्कुल भी अप्रामाणिक नहीं होगा कि तमिल भाषा की जननी भी संस्कृत ही है। 

दिनकर अपनी पुस्तक में डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी का उल्लेख करते हुए लिखते हैं-तमिल का ‘आइरम’ शब्द संस्कृत के ‘सहस्त्रम’ और ‘किरुत्तिनन’ शब्द संस्कृत के ‘कृष्ण‘ शब्द से बने हैं। दिनकर जी लिखते हैं कि वैदिक धर्म ग्रंथ केवल उत्तर में ही नहीं लिखे गए, उनमें से अनेक की रचना दक्षिण में हुई थी। चिन्तकों, विचारकों और विशिष्ट समाज की भाषा दक्षिण में भी संस्कृत ही थी। दिनकर जी की पंक्तियों से प्रमाणित होता है कि 

’उम्र की दृष्टि से संस्कृत बड़ी, भारत की अन्य सभी भाषाएं उससे छोटी, बहुत छोटी हैं। यहां तक कि तमिल जो भारत की अर्वाचीन भाषाओं में सबसे प्राचीन है, संस्कृत उससे भी, कम-से-कम दो हजार वर्ष अधिक पुरानी भाषा है। अतः, भारत को जो कुछ कहना था, उसने पहले संस्कृत में कहा। अतएव, हिंदू-संस्कृति की मूल भाषा संस्कृत रही। बाकी भाषाओं का एक लंबा-सा इतिहास केवल  संस्कृत की उद्धरणी का इतिहास है।’

प्रो. त्रिपाठी कहते हैं कि आधुनिक इतिहासकारों में संस्कृत के विकास को लेकर ही गड़बड़ाहट है, तो काल निर्धारण और भी जटिल विषय है। इसके लिए प्राचीन खगोल विज्ञान और ज्योतिष की सही समझ आवश्यक है। पाणिनि ने भी वैदिक संस्कृत के साथ छेड़छाड़ नहीं की बल्कि उसके लिए अलग अध्याय लिखा। ये भी स्पष्ट कर दिया कि किसी शब्द को वैदिक संस्कृत में कैसे लिखा या कहा जाता है। प्रो. त्रिपाठी आगे कहते हैं कि बात सिर्फ भाषा के जानकारों की नहीं है, विषय के जानकारों की भी है। जिन्हें भाषा ज्ञान है उन्हें विषय का ज्ञान नहीं और जिन्हें विषय का ज्ञान है उन्हें संस्कृत भाषा का नहीं। यदि वैदिक संस्कृत को मानव कल्याण के लिए उपयोग करना है तो इन दोनों बातों का ज्ञान होना आवश्यक है। 

इस तरह हम देखते हैं कि संस्कृत भाषा एक अत्यंत प्राचीन भाषा है। भाषा वैज्ञानिकों के अध्ययन में यह भाषा एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। हमें संस्कृत की धरोहर को सम्हालने में योगदान देना चाहिए।


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